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राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे ।
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे ।।
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता।।
अर्थात :- गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात श्री गीता जी को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अंतःकरण में धारण कर लेना मनुष्य का मुख्य कर्त्तव्य है, जो कि स्वयं पद्मनाभ भगवान् श्री विष्णु जी के मुखारविंद से निकली हुई है। फिर अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है?
स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी श्री गीताजी के माहातम्य का वर्णन किये हैं। (अ. १८ श्लोक ६७ से ७१ तक)
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योभ्यसूयति।।
अर्थात :- तुझे यह गीता रूप रहस्मय उपदेश किसी भी काल में न तो तप रहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति रहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए; तथा जो मुझमे दोष दृष्टि रखता है उससे तो कभी नहीं कहना चाहिए।। ६७ ।।
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।।
अर्थात:- जो पुरुष मुझमे परम प्रेम करके इस परम रहस्य युक्त गीता शास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है।। ६८ ।।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च में तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।
अर्थात :- उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है ; तथा पृथ्वी भर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।। ६९ ।।
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति में मतिः।।
अर्थात :- जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवादरूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञान यज्ञ से पूजित होऊंगा – ऐसा मेरा मत है।। ७० ।।
श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।
सोपि मुक्तः शुभांल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम।।
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अर्थात :- जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीता शास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालो के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा।। ७१ ।।
जय-जय श्री राधे जय-जय श्री कृष्ण
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